Saturday 28 January 2012

इस हाजिरजवाबी से बेहोश हो गए अमेरिकी



 
 संता ने अमेरिका के एक स्कूल में दाखिला लिया, स्कूल का पहला दिन था, अध्यापिका बच्चों से सवाल कर रही थी


अध्यापिकाः आईये अमेरिका के इतिहास पर नजर डालकर पढ़ाई शुरु करते हैं। बताओ किसने कहा था 'मुझे आजादी दो या मौत दे दे'


पूरी क्लास खामोश रही सिर्फ संता ने जवाब दियाः पेट्रिक हैनरी 1775


अध्यापिकाः बहुत अच्छे, अब बताओ ये वाक्य किसका है, 'धरती से जनता के लिए, जनता द्वारा, जनती की सरकार नहीं समाप्त होनी चाहिए' 


इस बार भी पूरी क्लॉस खामोश रही सिर्फ संता ने जवाब दियाः अब्राहम लिंकन 1863

अध्यापिकाः पूरी क्लॉस को शर्म आनी चाहिए, एक भारतीय छात्र को अमेरिका का इतिहास ज्यादा मालूम है।
इस पर एक छात्र पीछे से बोलाः 'इंडियंस को मारो'
अध्यापिका (गुस्से में)- ये किसने कहा
संताः जनरल क्लस्टर 1862


संता के इस एक और जवाब पर एक अमेरिकी बच्चा बोला, 'मैं उल्टी कर दूंगा'
अध्यापिका (झल्लाते हुए)- अब ये किसने कहा
संताः जार्ज बुश ने जापानी प्रधानमंत्री से 1991 में


अब पूरी क्लास झल्लाने लगी, एक अमेरिकी छात्र बोल पड़ा, 'ओह्ह ये, सक दिस'
यह सुनकर संता अपनी सीट से खड़ा हो गया अध्यापिका की ओर चिल्लाते हुए बोलाः बिल क्लिंटन टू मोनिका लेविंस्की, 1997


संता के इस एक और जवाब पर पूरी क्लास का दिमाग खराब हो गया, किसी ने चिल्लाते हुए कहा, 'अगर अब तुमने एक शब्द भी बोला तो मैं तुम्हारी जान ले लूंगा'

यह सुनकर संता पूरे जोश के साथ चिल्लायाः माईकल जैक्सन, अपने खिलाफ गवाही दे रहे बच्चे से, 2004 में
संता के इस जवाब पर अध्यापिका बेहोश हो गई, सारे बच्चे उसके चारों और इकट्ठा हो गए। किसी एक ने कहा, 'ओह्ह शिट, हम बुरी तरह फंस गए हैं'
इस पर संता बोलाः जार्ज बुश, इराक युद्ध के दौरान 2007 

‎"किस्मत सपने  सवांर रही है,सूरज पलकें चूम रहा है,

यूँ तो जिसकी आहट भर से,धरती अम्बर झूम रहा है,


नाच रहे हैं जंगल,पर्वत,मोर,चकोर सभी लेकिन 



,
उस बादल की पीड़ा समझो,जो बिन बरसे ही घूम रहा है....."

भारत में ईएसपीएन-स्टार के प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए...यह नस्लीय हिंसा है..




आस्ट्रेलिया के हाथों भारत की शर्मनाक हार के बाद एक बार फिर भारतीय फैंस ने ट्विटर और फेसबुक के जरिए अपना गुस्सा जाहिर किया है। इन पांच टिप्‍पणियों में भारतीय फैंस का मूड आंका जा सकता है...

#ये एशेज सीरीज थी, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया ये साबित करने के लिए खेल रहे थे कि कौन भारत की ज्यादा बेइज्जती कर सकता है।


#यह नस्लीय हिंसा है...एडिलेट के मैदान पर 11 भारतीयों की आस्ट्रेलियाइयों ने विकेटों और बल्ले से धुनाई कर दी है
 

#भारत में ईएसपीएन-स्टार के प्रसारण पर रोक लगा देनी चाहिए...प्रसारित हो रही आपत्तिजनक सामग्री के कारण निजी और सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान हो सकता है।

#भारतीय खिलाड़ियों ने अब से वीजा फार्म गलत भरने का फैसला किया है...न वीजा मिलेगा..न विदेश जाएंगे और न इतनी बुरी तरह से हारेंगे।
#ये हार नहीं पूनम पांडे के प्रति टीम इंडिया का प्यार है। पूनम पांडे नंगी नहीं हुई तो उसके लिए पूरी टीम इंडिया ही नंगी हो गई है।

मिस खुलकर बताइये क्या पैकेज है








केजी क्लास की मैडम बच्चों से बोली




एक से दस तक गिनती सुनाओ, स्वीट स्माइल मिलेगी




एक बच्चाः और एक से सौ तक सुनाने पर




मैडमः गाल पर किस




पप्पूः  मैडम मुझे हजार तक गिनती आती है,  खुलकर बताओ क्या पैकेज है।

अबे तुम गालियां बहुत बकते हो?


सर: तेरी शिकायत आई है कि तू गालियां बहुत देता है?


पप्पू: सर मैंने तो कभी किसी कुत्ते के बच्चे को गाली नहीं दी, पता नहीं किस उल्लू के पट्ठे ने आप को बताया है, अगर वो कुत्ता सामने आ गया तो उस कमीने को देख लूंगा. सर आपका स्टूडेंट ज़लील बनकर नाच लेगा लेकिन कभी गाली नहीं देगा.

Friday 27 January 2012

बातें तो तेरी फूल सी थीं मगर, सुनकर मैं पत्थर का हो गया ...


clip_image001इससे बड़ी हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है! जो ऑलरेडी, पहले से ही पत्थर का हो उसे पत्थर बनने का डर सताए!! एक पत्थर को पत्थर हो जाने का भय सताए! लोग तो नाहक ही डर रहे थे.

भारत में आम आदमी यूँ भी पत्थर का होता है. भले ही वो पत्थर का बना पैदा न होता हो, मगर अपनी पैदाइश के दूसरे ही क्षण वो पत्थर का हो जाता है. पहले तो भ्रूण में ही सोनोग्राफ़ी जैसे तमाम उपायों से यह भली प्रकार जाँचा परखा जाता है कि कोयले (कोयला तो एक तरह से पत्थर है) की आने वाली है या हीरे (हीरा भी एक तरह से पत्थर ही है,) का आनेवाला है. और जब वह इन टोने-टोटकों से बच बचाकर किसी तरह से पैदा हो जाता है तो जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के पवित्र कार्य से उसके पत्थर रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.

कोई प्रतिवाद कर सकता है कि वो पत्थर का नहीं है. ठीक है, आपके प्रतिवाद को हम स्वीकारते हैं. मगर जब आप अपने शहर के भीड़ भरे, गड्ढे युक्त सड़क पर बिना प्रतिवाद किए, निस्पृहता से रोज-ब-रोज निकलते हैं तब आपका क्या स्वरूप होता है? पत्थर का ही न? और फिर जब आप किसी सरकारी काम से जाते हैं और आप भी औरों की तरह चाय पानी करवाए बगैर अपना काम नहीं करवा पाते हैं तो आप क्या हुए? पत्थर ही न? और, ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं.

पिछले साल भर समाचारों में भ्रष्टाचार प्रमुखता से छाया रहा. लाखों करोड़ों के घपलों के समाचार रोज छपते रहे. मगर जनता? पत्थर की माफिक बिना किसी क्रिया-प्रतिक्रिया के देखती सुनती रही. बीच में लोकपाल का हल्ला मचा. जैसे कि कोयला-पत्थर में कहीं थोड़ी आग लगी हो, या किसी ने बड़े चट्टान को पहाड़ से लुढ़काया हो. मगर कुछ दिनों में वो सब पत्थर की तरह फिर से जड़वत हो गया. नतीजा – ढाक के तीन पात! संसद में वह बिल पिछले 40 वर्षों से पत्थर की माफिक पड़ा है, और लगता है कि आगे यूँ ही पड़ा रहेगा. भारतीय जनता, उसकी भावनाएँ पत्थर की है, पत्थर की रहेगी – यह हमारे राजनेताओं ने एक बार फिर से प्रूव करके दिखा दिया है

जनरल वी. के. सिंग की जन्मतिथि का मामला - सरकारी बाबूगिरी का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण!


imageimage

क्या आप भी फ़ेसबुक से दुःखी हैं?


clip_image001
आजकल हर कोई फ़ेसबुक से दुःखी है. सबसे ज्यादा दुःखी तो सरकार है. सरकार फ़ेसबुक से इतना दुःखी हो चुकी है कि वो इस पर बैन करने की बात कहने लगी है. और अब तो न्यायालय भी चीनी तर्ज पर फ़ेसबुक को ब्लॉक करने की धमकियाँ देने लगी है. उधर फ़ेसबुक में घुसे पड़े रहने वाले और तमाम वजहों के अलावा इस वजह से भी दुःखी हुए जा रहे हैं कि सरकार या न्यायालय अब किसी भी दिन फ़ेसबुक पर बैन लगा देगी तो उनके अनगिनत फ़ेसबुक मित्रों, चिकोटियों, स्टेटस मैसेज, वॉल पोस्टिंग और पसंद का क्या होगा!
फ़ेसबुक से मैं तो दुःखी हूँ ही, मेरी पत्नी मुझसे ज्यादा दुःखी है. अलबत्ता दोनों के कारण जुदा जुदा हैं. फ़ेसबुक से तो मैं तब से दुःखी था जब से मैं फ़ेसबुक से जुड़ा भी नहीं था. तब जहाँ कहीँ भी जाता, लोग गर्व से बताते कि वे फ़ेसबुक पर हैं. मैं उनके गर्व के सामने निरीह हो जाता और दुःखी हो जाता. फिर पूछते – आप भी फ़ेसबुक पर हैं? और चूंकि मैं फ़ेसबुक पर नहीं होता था तो और ज्यादा दुःखी हो जाता था कि मैं कितना पिछड़ा, नॉन-टेक्नीकल आदमी हूँ कि देखो तमाम दुनिया तो फ़ेसबुक पर पहुँच चुकी है, और हम हैं कि अभी जाने कहाँ अटके हैं.
तो एक अच्छे भले दिन (पत्नी के हिसाब से एक बेहद खराब दिन) मैं भी इधर उधर से जुगत भिड़ाकर फ़ेसबुक पर आ ही गया. और, मैं फ़ेसबुक पर आ क्या गया, मेरे और ज्यादा दुःखी होने के दिन भी साथ आ गए.
मेरे फ़ेसबुक पर आने के कई कई दिनों तक मेरे पास किसी का कोई मित्र निवेदन नहीं आया. आप समझ सकते हैं कि मेरे दुखों का क्या पारावार रहा होगा. यही नहीं, मैंने दर्जनों, सैकड़ों मित्र निवेदन भेजे. मगर फ़ेसबुक में आपसी मित्रों में उलझी मित्रमंडली में से किसी ने गवारा नहीं किया कि वो मेरे मित्र निवेदन का जवाब भेजे. स्वीकारना तो खैर, दूर की बात थी. अब जब आप बड़ी आशा से मित्र निवेदन भेजें और सामने से कोई प्रतिक्रिया नहीं आए, तो आप क्या खुश होंगे? और, जब पता चले कि गली के नुक्कड़ पर चायवाले के पाँच हजार फ़ेसबुक मित्र हैं, और आप खाता खोलने के लिए भी तरस रहे हैं तो अपने दुःख की सीमा का अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं.
अब चूंकि मैं फ़ेसबुक पर आ चुका तो यहाँ थोड़ी चहल कदमी भी करने लगा. लोगों की देखा-देखी एक दिन मैंने भी अपना स्टेटस लगाया – आज मुझे जुकाम है, और मेरी नाक म्यूनिसिपल्टी के टोंटी विहीन नल की तरह बह रही है. मुझे लगा कि दूसरों के भरे पूरे फ़ेसबुक वॉल की तरह इस धांसू फ़ेसबुक स्टेटस पर टिप्पणियों की भरमार आ जाएगी और मेरा वाल भी टिप्पणियों, प्रतिटिप्पणियों से भर जाएगा. मगर मुझे तब फ़ेसबुक में टिके रहने वालों की असलियत पता चली कि उनमें जरा सा भी सेंस ऑफ़ ह्यूमर नहीं है, जब मेरे इस धांसू स्टेटस मैसेज पर एक भी टिप्पणी दर्ज नहीं हुई. और, जहाँ फ़ेसबुक के अरबों प्रयोक्ता हों, लोग बाग़ चौबीसों घंटे वहाँ पिले पड़े रहते हों, वहाँ जीरो टिप्पणी वाली स्टेटस मैसेज का मालिक क्या खुश होगा?
इसी तरह मैंने अपने वाल पर तमाम टीका टिप्पणियाँ भरीं, दूसरों के सार्वजनिक वाल पर आशा-प्रत्याशा में टीप मारे, मगर मामला वही, ढाक के तीन पात. मेरी वाल सदा सर्वदा से खाली ही बनी रही, और मुझे अच्छा खासा दुःखी करती रही.
अपना फ़ेसबुकिया जीवन संवारने व कुछ कम दुःखी होने की खातिर एक दिन मैंने कुछ टिप हासिल करने की खातिर एक अत्यंत सफल फ़ेसबुकिया से संपर्क किया. उसके पाँच हजार फ़ेसबुक मित्र थे, उसकी वॉल सदा हरी भरी रहती थी. वो एक टिप्पणी मारता था तो प्रत्युत्तर में सोलह सौ पचास प्रतिटिप्पणियाँ हासिल होती थीं. मगर जो बात उसने मुझे अपना नाम सार्वजनिक न करने की कसम देते हुए कही, वो मुझे और दुःखी कर गई. उस सफल फ़ेसबुकिये ने बताया कि उसे अपने तमाम पाँच हजार मित्रों के स्टेटस संदेश पर हाहा-हीही किस्म की टिप्पणियाँ मारनी पड़ती हैं, उनके जन्मदिनों में याद से उनके वॉल पर बधाईयाँ टिकानी पड़ती है, उनकी टिप्पणियों का जवाब देना मांगता है, उनकी चिकोटियों पर उलटे चिकोटी मारनी पड़ती है और उनमें से लोग जो दीगर लिंक टिकाते हैं, फोटो चेंपते हैं उनमें भी अपनी टिप्पणी और पसंद मारनी पड़ती है इत्यादि इत्यादि. और इन्हीं सब में दिन रात उलझ कर वो अपना चैन (माने नौकरी, प्रेमिका इत्यादि...) खो चुका है, लिहाजा आजकल बेहद दुःखी रहता है!
आह! फ़ेसबुक! तूने तो सबको दुःखी कर डाला है रे! फ़ेसबुक से गूगल, एमएसएन और याहू तो दुःखी हैं ही, क्या पता शायद खुद मार्क जुगरबर्ग भी दुःखी हो!

मनोचिकित्सक


नसरूद्दीन को एक विचित्र बीमारी हो गई. उसके इलाज के लिए वह मनोचिकित्सक के पास गया और उसे अपनी समस्या सुनाई – “डॉक्टर, मैं पिछले महीने भर से सो नहीं पा रहा हूँ. जब मैं पलंग पर सोता हूँ तो मुझे लगता है कि पलंग के नीचे कोई है. और मैं डर कर नीचे झांकता हूं परंतु पलंग के नीचे कोई नहीं होता. फिर मैं भयभीत होकर पलंग के नीचे सोता हूं तो लगता है कि पलंग के ऊपर कोई है. मैं बहुत परेशान हूं. मेरा इलाज कर दो.”
मनोचिकित्सक ने नसरूद्दीन से कहा कि तुम्हारी समस्या बड़ी विचित्र है, और इसका इलाज महंगा है और लंबा चलेगा. हर हफ़्ते तुम्हें मेरे पास मनोचिकित्सा के लिए आना होगा, जिसकी फीस 300 रुपये होगी और इलाज कोई दो वर्ष लगातार लेना होगा. इलाज की पूरी गारंटी है.
नसरुद्दीन यह सुनकर घबराया और कल बताता हूँ कह कर वह डाक्टर के पास से चला गया. दूसरे दिन नसरूद्दीन ने डॉक्टर को फ़ोन लगाया और उसे धन्यवाद देते हुए कहा कि उसकी समस्या का इलाज हो गया है. डॉक्टर को विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने पूछा कि कैसे?
“मैंने अपने पलंग के पाए ही काट दिए हैं”. नसरूद्दीन ने खुलासा किया – “न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!”

बेमतलबी दुनिया


जिन्हें मैं अपना समझता हूं और जिन्हें मैं अपना नहीं समझता हूं, दोनों प्रकार के लोगों से मुझे ये सलाह कई बार मिल चुकी है कि दुनिया बड़ी मतलबी है, इसलिए सम्हल कर रहना. पर मैं नहीं सम्हला, कई बार इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक यानि जितनी तरह की यातनाएं या दंड हो सकते हैं, सब झेलने पड़े. अंग्रेजी में एक कहावत है- नो पेन, नो गेन. इतना पेन सहने के बाद एक बात जो मेरा छोटा सा मस्तिष्क (उसके आकार का अंदाजा लगाने के लिए आप पूरी तरह स्वतंत्र हैं.) गेन कर पाया है, वो यह कि दुनिया दरअसल किसी जमाने में मतलबी हुआ करती थी, अब तो वह बेमतलबी हो गई है. उस जमाने में हर किसी का हर किसी से कोई न कोई मतलब हुआ करता था. जैसे जर-जोरू-जमीन का मतलब काफी पॉपुलर था उस जमाने में. पर अब ये सारे मतलब भी लुप्तप्राय: हो गए हैं. दुनिया का आपसे बस इतना ही सरोकार जुड़ा है कि पर्व-त्योहारों पर वो आपका इनबॉक्स फुल कर दे, जन्मदिन पर फेसबुक के वॉल पोस्ट को शुभकामनाओं से पाट दिया जाए. मेरी राय में ये जो सोशलनेटवर्किंग साइट का लाइक ऑप्शन है, वो शर्तिया तौर पर अंग्रेजी के सॉरी शब्द को निगलने वाला है. इसने सॉरी की सीमाओं से परे जाकर अभी से काम करना शुरू कर दिया है. किसी भी अपडेट को लाइक कीजिए और आपकी जिम्मेदारी खत्म. जिस वक्त मैं जनसंचार की पढ़ाई कर रहा था, उस वक्त कम्युनिकेशन के कई मॉडल्स से मेरा वास्ता पड़ा था. बड़े-बड़े परदेसी विद्वानों के बनाए इन मॉडलों का सार यही था कि कम्युनिकेशन तभी सक्सेसफुल हो सकता है जब कहने, दिखाने या लिखने वाले का संदेश सुनने, देखने या पढ़ने वाले को पूरी तरह से समझ में आ जाए. पर अब न तो सेंडर को ढंग से फुर्सत है और ना ही रिसीवर को इतना वक्त है कि वह संदेश का सही तरीके से ग्रहण करे, लेकिन फर्जी फीडबैक आने का सिलसिला अभी भी जारी है. यानि दुनिया के बेमतलबी हो जाने का एक और प्रमाण. बेमतलबी होने से मेरा तात्पर्य ये है कि आप व्यक्ति विशेष के लिए काम के हैं भी और नहीं भी. आपकी राय या मश्विरे का कोई खास बाजार भाव नहीं है. अगर आपने राय दी तो भी ठीक और नहीं भी दी तो कोई आपसे ये पूछने नहीं आएगा कि महाशय, आपने अपनी बहुमूल्य राय क्यों नहीं दी. ये बात अलग है कि हर राय मांगने वाला इस बात का उल्लेख चलन की वजह से जरूर करेगा कि अपनी राय से जरूर अवगत कराएं, क्योंकि आपकी राय बहुमूल्य है (क्योंकि अब हर किसी की राय बहुमूल्य है). आप शायद मुझसे कहेंगे कि तुम इतनी देर से इतना सबकुछ समझ गए हो इसलिए जरूरी है कि इस बेमतलबी दुनिया के तौर-तरीकों से तौबा करने के बजाए इन्हें सीख डालो. पर माफ कीजिएगा, मैं ये काम भी नहीं कर पाउंगा. मुझे जिस विषय की समझ होगी उसी पर अपनी राय दे सकूंगा. मैं आपकी बेमतलबी दुनिया की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता. मैं अपनी मतलबी दुनिया में रहकर ही अपको मतलबी बने रहने के फायदे बताता रहूंगा. आजीवन!

वाय दिस लोकपाल डी !

एक लोकपाल की उम्मीदों के साथ साल 2011 बीत गया....अब आने वाले साल 2012 से उम्मीदें ही बाकी है...2011 का पूरा साल लोकपाल के लिये आंदोलन में चला गया...नतीजा सिफर ही रहा है...लगने लगा था कि 2011 में एक सशक्त लोकपाल बिल पास हो जाएगा...और इसी वजह से ये साल इतिहास के पन्नों में जगह पा जाएगा...पूरे साल सड़कों पर संघर्ष के भी कोई मायने नहीं रहे...सरकार की निरंकुश सोच इस पूरे आंदोलन पर हावी होती दिखी...सत्ता की ताकत का एहसास भी दिख गया कि लोकतंत्र के बावजूद निरंकुश सत्ता कैसे चलाई जा सकती है...लोकपाल बिल को लेकर संसद ने जिस तरह की तथाकथित गंभीरता दिखाई वो आगे की संसदीय पीढियों के लिये एक सीख है...और वो ये कि किस तरह से एक लापरवाह गंभीरता दिखाई जा सकती है...कानून कैसे बनते हैं...ये संविधान की किताबों में साफ-साफ लिखा मिल जाएगा...छोड़िये केशवानंद भारती और गोलकनाथ विवाद को ये तो संविधान की व्याख्या समझने के लिये किताबों में जगह पा गए हैं... लोकपाल कानून बने या न बने लोकपाल बनने की प्रक्रिया ही देश के लिये एक केस स्टडी बन चुका है...वो ये कि किस तरह से कानूनों का गलत सहारा लेकर एक सशक्त कानून बनाने से बचा जा सकता है...ये सरकार ने कर दिखाया है...हालांकि भ्रष्टाचारियों की कोई जाति नहीं होती है...कोई धर्म नहीं होता लेकिन भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिये बनाए जाने वाले इस कानून में धर्म और जाति की बेड़ियां डाल दी गई...संविधान की दुहाई देकर सांसद पूरे जोश से कहते रहे कि कानून बनाना संसद का काम है...लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि संविधान की उसी किताब में अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट भी कानून बनाता है...वो भी आम आदमी की चार पन्नों की याचिका पर... इतिहास गवाह है कि 141 के तहत बना कानून सशक्त कानून होता है...हालिया उदाहरण ले लीजिये एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कानून बना दिया कि सभी सांसदों को अपनी पूरी जानकारी सार्वजनिक करनी होगी....सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट के इस कानून को ही बदल दिया...लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी सांसदों के मंसूबों पर पानी फेरते हुए संसद की ओर से कानून में किये गए सुधार को खारिज कर दिया...आज कई सांसद और विधायक गलत जानकारी देने के आरोप में सदस्यता गवां चुके हैं.. विडम्बना देखिये सभी सशक्त लोकपाल चाहते हैं लेकिन सबकी परिभाषा अलग है.. नेताओं के सशक्त शब्द का मतलब निकाला जाए तो पहले शब्दकोष से दुर्बल शब्द ही हटाना पड़ेगा...लालू जी को देश में नहीं विदेश में बेइज्जती का डर सता रहा है...जहां कि ऐजेसिंयों ने अपने देश को इमानदारी के 95 वें पायदान पर रखा है...मुलायम सिंह को डर है कि लोकपाल पास होने से दारोगा पकड़ लेगा...शायद मुलायम सिंह जी को नहीं पता कि पूरे विश्व में अपराध करने पर एफआईआर थाने में ही लिखी जाती है और पकड़ने का काम दारोगा का ही होता है...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं...ये बातें बापू ने तब कही थीं जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे...और सच भी कर दिखाया...लेकिन आज सवाल ये उठ रहा है कि बापू इस परेशानी की इंतहां क्या होगी....एक जन लोकपाल कानून बनाने के लिये 43 सालों से मांग की जा रही है...और आपने तो देश को 32 साल की लड़ाई के बाद अंग्रेजों से आजाद करा लिया था...आपके तथाकथित अनुयायी जंतर-मंतर की आवाज नहीं सुनते...आपने तो चंपारन से कानून बदलवा लिया था...नेता तो अन्ना की मुंबई रैली को फ्लाप बताकर खुश हो रहे हैं...भीड़ और वोट को पैमाना मानने वाले इन नेताओं ने साबित कर दिया है कि अभी भी देश की भावना नहीं समझते...इन्हें ये भी याद नहीं है कि आपने 78 लोगों के साथ सविनय अवज्ञा शुरु की थी और मुट्ठी भर नमक से अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था...सुना है कि त्रेता युग में बुराई पर सच्चाई की जीत हुई थी...तबसे बुराई का प्रतीक रावण को हर साल जलाकर हम सदियों से इस जीत का बस अहसास ही करते रहेंगे...या आज कलियुग में भी भ्रष्टाचार का रावण जलेगा...सच में अगर यह कलियुग है तो रावण कहां मरने वाला...हमारी नीयति बनती जा रही है कि हम पुराणों और कथाओं में ही सत्य का अहसास करने के आदी हो चले हैं...हमारा देश आस्तिक देश है लिहाजा उम्मीदों पर ही जिंदगी चल रही है...पर अब सपने भी टूटने लगे हैं....

बकवास या अहसास

जब  आपको  अपने  आप से  लड़ना पड़ता है तब महसूस  होता  है  कि दुनिया से लड़ना कितना आसान है  और  फिर ऐसा समय आता है  जब लगने लगता  है  कि  मेरी जिन्दगी भी  मेरी ना  रही  यह  या तो उसकी  हो जाती  है  जिससे  आप  डरते हैं  या  जिस पर  आप मरते  हैं  इन दोनों के परे  तो कुछ  भी नहीं  होता  और दो हिस्सों में बंट कर भी  यही  लगता  है कि  अपने हिस्से  तो कुछ आया  ही नहीं  लेकिन  ये सोच कर संतोष  कर लेते हैं कि मुझसे  तो कुछ भी संभाला ना  जाता । कितनी बार लगता  है कि समर्पण  में कितनी शक्ति  है  ऐसा  कर के  आप आक्रोश  के  आवेग  से  बच जाते  हैं  और  दूसरी और  प्यार  के  अनंत  सागर  में सुकून से  खो जाते  हैं । 
via @ http://lawman67.blogspot.com

Sunday 22 January 2012

इंटरनेट के बिना चलेगी रजनीकांत की वेबसाइट

ये आपको सुपरस्टार रजनीकांत पर आधारित एक चुटकुला लगे लेकिन एक ऐसी वेबसाइट लॉच की गई है जो इस अभिनेता पर समर्पित है और बिना इंटरनेट कनेक्शन के चल सकती है.

ऑलअबॉउटरजनीकांत डॉट कोम पर जाते ही आपका स्वागत ये संदेश करता है, ''रजनीकांत एक आम इंसान नहीं हैं, ये एक साधारण वेबसाइट नहीं है. ये रजनी की शक्ति से चलती है और इस वेबसाइट से जुड़ने के लिए आप इंटरनेट कनेक्शन को बंद कर दे.''


जब इंटरनेट बंद हो जाता है तभी आप इस वेबसाइट को जाकर देख सकते हैं.

इस वेबसाइट पर जाकर रजनीकांत के शुरुआती करियर, उनकी फ़िल्मों के बारे में अंदर की ख़बरों, पर्दे के पीछे हुए सीन और रजनीकांत के चुटकुले जिसमें कहा गया है कि उनके लिए कुछ भी करना नामूमकिन नहीं है वो सब आप देख -पढ़ सकते हैं.

इस वेबसाइट को चलाने वाली कंपनी वेबचटनी के क्रिएटिव निदेशक गुरबख़्श सिंह का कहना है, ''किसी वेबसाइट को बिना इंटरनेट कनेक्शन के चलाने में रजनीकांत की अपार लोकप्रियता की मिसाल है.''

रजनीकांत का स्टाइल

वेबसाइट पर रजनीकांत के स्टाइल की झलक साफ़ देखने को मिलती है, जहां मज़ेदार गाने सुने जा सकते है. ये वेबसाइट काफ़ी रंगबिरंगी है और इस पर अजीबो-गरीब वक्तव्य भी प्रकाशित किए गए हैं.

और अगर इस वेबसाइट पर जाने के दौरान यूसर इंटरनेट से जुड़ने की कोशिश करता है तो एक संदेश आता है, ''अईयो. इसकी तो उम्मीद नहीं थी. वेबसाइट को देखने के लिए इंटरनेट बंद कर दें'.

समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए गए साक्षात्कार में वेबचटनी गुरबख़्श सिंह ने कहा है, ''इस वेबसाइट पर कई लोग आ रहे हैं, इसे हज़ारों की संख्या में हिट्स मिल रहे है और लोग सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी इस वेबसाइट के बारे में बता रहे हैं.

सिंह का कहना था कि कुछ टेस्ट के बाद हमने कोड को पता लगाया जिससे की इंटरनेट के बिना दुनिया की पहली वेबसाइट को चलाया जा सके और ये बहुत बढ़िया है और ये एक जादू जैसा है जिसपर यक़ीन करना मुश्किल है बिल्कुल रजनीकांत द्वारा किए गए स्टंट जैसा.





bbchindi.com