Friday, 27 January 2012

वाय दिस लोकपाल डी !

एक लोकपाल की उम्मीदों के साथ साल 2011 बीत गया....अब आने वाले साल 2012 से उम्मीदें ही बाकी है...2011 का पूरा साल लोकपाल के लिये आंदोलन में चला गया...नतीजा सिफर ही रहा है...लगने लगा था कि 2011 में एक सशक्त लोकपाल बिल पास हो जाएगा...और इसी वजह से ये साल इतिहास के पन्नों में जगह पा जाएगा...पूरे साल सड़कों पर संघर्ष के भी कोई मायने नहीं रहे...सरकार की निरंकुश सोच इस पूरे आंदोलन पर हावी होती दिखी...सत्ता की ताकत का एहसास भी दिख गया कि लोकतंत्र के बावजूद निरंकुश सत्ता कैसे चलाई जा सकती है...लोकपाल बिल को लेकर संसद ने जिस तरह की तथाकथित गंभीरता दिखाई वो आगे की संसदीय पीढियों के लिये एक सीख है...और वो ये कि किस तरह से एक लापरवाह गंभीरता दिखाई जा सकती है...कानून कैसे बनते हैं...ये संविधान की किताबों में साफ-साफ लिखा मिल जाएगा...छोड़िये केशवानंद भारती और गोलकनाथ विवाद को ये तो संविधान की व्याख्या समझने के लिये किताबों में जगह पा गए हैं... लोकपाल कानून बने या न बने लोकपाल बनने की प्रक्रिया ही देश के लिये एक केस स्टडी बन चुका है...वो ये कि किस तरह से कानूनों का गलत सहारा लेकर एक सशक्त कानून बनाने से बचा जा सकता है...ये सरकार ने कर दिखाया है...हालांकि भ्रष्टाचारियों की कोई जाति नहीं होती है...कोई धर्म नहीं होता लेकिन भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिये बनाए जाने वाले इस कानून में धर्म और जाति की बेड़ियां डाल दी गई...संविधान की दुहाई देकर सांसद पूरे जोश से कहते रहे कि कानून बनाना संसद का काम है...लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि संविधान की उसी किताब में अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट भी कानून बनाता है...वो भी आम आदमी की चार पन्नों की याचिका पर... इतिहास गवाह है कि 141 के तहत बना कानून सशक्त कानून होता है...हालिया उदाहरण ले लीजिये एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कानून बना दिया कि सभी सांसदों को अपनी पूरी जानकारी सार्वजनिक करनी होगी....सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट के इस कानून को ही बदल दिया...लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी सांसदों के मंसूबों पर पानी फेरते हुए संसद की ओर से कानून में किये गए सुधार को खारिज कर दिया...आज कई सांसद और विधायक गलत जानकारी देने के आरोप में सदस्यता गवां चुके हैं.. विडम्बना देखिये सभी सशक्त लोकपाल चाहते हैं लेकिन सबकी परिभाषा अलग है.. नेताओं के सशक्त शब्द का मतलब निकाला जाए तो पहले शब्दकोष से दुर्बल शब्द ही हटाना पड़ेगा...लालू जी को देश में नहीं विदेश में बेइज्जती का डर सता रहा है...जहां कि ऐजेसिंयों ने अपने देश को इमानदारी के 95 वें पायदान पर रखा है...मुलायम सिंह को डर है कि लोकपाल पास होने से दारोगा पकड़ लेगा...शायद मुलायम सिंह जी को नहीं पता कि पूरे विश्व में अपराध करने पर एफआईआर थाने में ही लिखी जाती है और पकड़ने का काम दारोगा का ही होता है...राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं...ये बातें बापू ने तब कही थीं जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे...और सच भी कर दिखाया...लेकिन आज सवाल ये उठ रहा है कि बापू इस परेशानी की इंतहां क्या होगी....एक जन लोकपाल कानून बनाने के लिये 43 सालों से मांग की जा रही है...और आपने तो देश को 32 साल की लड़ाई के बाद अंग्रेजों से आजाद करा लिया था...आपके तथाकथित अनुयायी जंतर-मंतर की आवाज नहीं सुनते...आपने तो चंपारन से कानून बदलवा लिया था...नेता तो अन्ना की मुंबई रैली को फ्लाप बताकर खुश हो रहे हैं...भीड़ और वोट को पैमाना मानने वाले इन नेताओं ने साबित कर दिया है कि अभी भी देश की भावना नहीं समझते...इन्हें ये भी याद नहीं है कि आपने 78 लोगों के साथ सविनय अवज्ञा शुरु की थी और मुट्ठी भर नमक से अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था...सुना है कि त्रेता युग में बुराई पर सच्चाई की जीत हुई थी...तबसे बुराई का प्रतीक रावण को हर साल जलाकर हम सदियों से इस जीत का बस अहसास ही करते रहेंगे...या आज कलियुग में भी भ्रष्टाचार का रावण जलेगा...सच में अगर यह कलियुग है तो रावण कहां मरने वाला...हमारी नीयति बनती जा रही है कि हम पुराणों और कथाओं में ही सत्य का अहसास करने के आदी हो चले हैं...हमारा देश आस्तिक देश है लिहाजा उम्मीदों पर ही जिंदगी चल रही है...पर अब सपने भी टूटने लगे हैं....

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