Friday 27 January 2012

बातें तो तेरी फूल सी थीं मगर, सुनकर मैं पत्थर का हो गया ...


clip_image001इससे बड़ी हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है! जो ऑलरेडी, पहले से ही पत्थर का हो उसे पत्थर बनने का डर सताए!! एक पत्थर को पत्थर हो जाने का भय सताए! लोग तो नाहक ही डर रहे थे.

भारत में आम आदमी यूँ भी पत्थर का होता है. भले ही वो पत्थर का बना पैदा न होता हो, मगर अपनी पैदाइश के दूसरे ही क्षण वो पत्थर का हो जाता है. पहले तो भ्रूण में ही सोनोग्राफ़ी जैसे तमाम उपायों से यह भली प्रकार जाँचा परखा जाता है कि कोयले (कोयला तो एक तरह से पत्थर है) की आने वाली है या हीरे (हीरा भी एक तरह से पत्थर ही है,) का आनेवाला है. और जब वह इन टोने-टोटकों से बच बचाकर किसी तरह से पैदा हो जाता है तो जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के पवित्र कार्य से उसके पत्थर रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.

कोई प्रतिवाद कर सकता है कि वो पत्थर का नहीं है. ठीक है, आपके प्रतिवाद को हम स्वीकारते हैं. मगर जब आप अपने शहर के भीड़ भरे, गड्ढे युक्त सड़क पर बिना प्रतिवाद किए, निस्पृहता से रोज-ब-रोज निकलते हैं तब आपका क्या स्वरूप होता है? पत्थर का ही न? और फिर जब आप किसी सरकारी काम से जाते हैं और आप भी औरों की तरह चाय पानी करवाए बगैर अपना काम नहीं करवा पाते हैं तो आप क्या हुए? पत्थर ही न? और, ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं.

पिछले साल भर समाचारों में भ्रष्टाचार प्रमुखता से छाया रहा. लाखों करोड़ों के घपलों के समाचार रोज छपते रहे. मगर जनता? पत्थर की माफिक बिना किसी क्रिया-प्रतिक्रिया के देखती सुनती रही. बीच में लोकपाल का हल्ला मचा. जैसे कि कोयला-पत्थर में कहीं थोड़ी आग लगी हो, या किसी ने बड़े चट्टान को पहाड़ से लुढ़काया हो. मगर कुछ दिनों में वो सब पत्थर की तरह फिर से जड़वत हो गया. नतीजा – ढाक के तीन पात! संसद में वह बिल पिछले 40 वर्षों से पत्थर की माफिक पड़ा है, और लगता है कि आगे यूँ ही पड़ा रहेगा. भारतीय जनता, उसकी भावनाएँ पत्थर की है, पत्थर की रहेगी – यह हमारे राजनेताओं ने एक बार फिर से प्रूव करके दिखा दिया है

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